रांची: झारखंड सरकार ने मेडिकल कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करने के बाद अनिवार्य सरकारी सेवा से बाहर जाने वाले डॉक्टरों के लिए आर्थिक क्षतिपूर्ति की नई नीति को मंजूरी दी है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में इस फैसले को मंजूरी दी गई, जिसमें पूर्व में तय किए गए नियमों में संशोधन किया गया है।
सरकार के अनुसार, झारखंड के मेडिकल कॉलेजों से एमबीबीएस या अन्य चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने वाले डॉक्टरों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे कम से कम तीन वर्षों तक राज्य की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में कार्यरत रहें। यदि कोई डॉक्टर इस अनिवार्यता का उल्लंघन करता है, तो उसे आर्थिक क्षतिपूर्ति देनी होगी।
संशोधित नियमों के प्रमुख बिंदु:
पहले वर्ष में सेवा छोड़ने पर: यदि कोई डॉक्टर मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद पहले ही वर्ष में सरकारी सेवा छोड़ता है, तो उसे 30 लाख रुपये का एकमुश्त मुआवजा सरकार को देना होगा।
दूसरे वर्ष में सेवा छोड़ने पर: यदि डॉक्टर दूसरे वर्ष में नौकरी छोड़ता है, तो उसे बचे हुए तीन वर्षों की सेवा के लिए प्रत्येक माह 1.25 लाख रुपये के हिसाब से क्षतिपूर्ति देनी होगी।
तीसरे वर्ष में सेवा छोड़ने पर: डॉक्टर यदि तीसरे वर्ष में सरकारी सेवा से हटता है, तो उसे शेष अवधि की सेवा अवधि के अनुसार ही मासिक आधार पर 1.25 लाख रुपये प्रतिमाह देना होगा।
सरकार की मंशा और उद्देश्य
झारखंड सरकार का कहना है कि यह फैसला राज्य के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी को दूर करने के लिए लिया गया है। राज्य में कई मेडिकल कॉलेजों से डॉक्टर बनकर निकले छात्र उच्च शिक्षा या निजी प्रैक्टिस के लिए सरकारी नौकरी जॉइन करने से बचते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होती हैं।
सरकार पहले भी इस अनिवार्यता को लागू कर चुकी थी, लेकिन कुछ डॉक्टर तय सेवा अवधि से पहले ही नौकरी छोड़ देते थे। अब इस संशोधन के तहत आर्थिक क्षतिपूर्ति को अधिक स्पष्ट कर दिया गया है ताकि डॉक्टरों को सरकारी सेवा के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया जा सके।
सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी
झारखंड के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी है। स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, राज्य में डॉक्टरों के 5000 से अधिक स्वीकृत पद हैं, लेकिन इनमें से 50% से अधिक पद खाली हैं। खासकर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति गंभीर बनी हुई है।
सरकार का मानना है कि मेडिकल कॉलेजों में सरकारी खर्च पर पढ़ाई करने वाले डॉक्टरों को कुछ वर्षों तक सरकारी सेवा देना अनिवार्य होना चाहिए, ताकि स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ किया जा सके। इस नई नीति से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि मेडिकल शिक्षा प्राप्त करने के बाद डॉक्टर अपनी जिम्मेदारी से भाग न सकें।